डिवोर्स के बाद बच्चे की कस्टडी किसके पास होती है — मां या पिता?
🔹 प्रस्तावना
तलाक (Divorce) का फैसला किसी भी दंपति के लिए आसान नहीं होता। यह सिर्फ पति-पत्नी को ही नहीं, बल्कि उनके बच्चों को भी गहराई से प्रभावित करता है।
डिवोर्स के बाद सबसे बड़ा और संवेदनशील सवाल यही उठता है —
👉 “बच्चे की कस्टडी किसे मिलेगी — मां को या पिता को?”
भारतीय कानून ने इस सवाल का जवाब बड़े सोच-समझकर दिया है। इस ब्लॉग में हम समझेंगे कि कानूनी रूप से बच्चे की अभिरक्षा (Child Custody) किसे मिलती है, क्या नियम हैं, और कोर्ट किस आधार पर यह निर्णय लेता है।
🔹 बच्चे की कस्टडी क्या है?
Child Custody का मतलब है — बच्चे के पालन-पोषण, देखभाल, शिक्षा, और भविष्य से जुड़ा पूरा अधिकार।
जब पति-पत्नी का तलाक होता है, तो कोर्ट यह तय करता है कि बच्चे की देखरेख किसके पास रहेगी।
कस्टडी के प्रकार:
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Physical Custody (भौतिक अभिरक्षा): बच्चा जिस माता या पिता के साथ रहता है।
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Legal Custody (कानूनी अभिरक्षा): बच्चे के जीवन से जुड़े निर्णयों का अधिकार — जैसे स्कूल, मेडिकल ट्रीटमेंट आदि।
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Joint Custody (संयुक्त अभिरक्षा): जब कोर्ट दोनों माता-पिता को समान जिम्मेदारी देता है।
🔹 भारत में लागू कानून
बच्चे की अभिरक्षा से जुड़े मुख्य कानून हैं:
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Guardian and Wards Act, 1890
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Hindu Minority and Guardianship Act, 1956
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Indian Divorce Act, 1869
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Muslim Law (शरीयत कानून) — मुस्लिम परिवारों के लिए अलग प्रावधान हैं।
🔹 कोर्ट का मुख्य सिद्धांत — “Best Interest of the Child”
भारत के हर फैमिली कोर्ट का उद्देश्य होता है कि बच्चे की कस्टडी उस व्यक्ति को मिले, जिसके पास बच्चे का हित (Welfare) सबसे अधिक सुरक्षित हो।
यानी फैसला न तो केवल मां या पिता के अधिकार पर आधारित होता है, बल्कि बच्चे के भविष्य, सुरक्षा, और भावनात्मक स्थिरता पर केंद्रित होता है।
🔹 आयु के आधार पर कस्टडी का रुझान
कई मामलों में, कोर्ट बच्चे की उम्र को ध्यान में रखकर निर्णय लेती है:
| बच्चे की आयु | सामान्यतः कस्टडी किसे दी जाती है |
|---|---|
| 0 से 5 वर्ष तक | मां (क्योंकि बच्चे को मातृत्व देखभाल की आवश्यकता होती है) |
| 5 से 12 वर्ष | परिस्थिति के अनुसार निर्णय |
| 12 वर्ष से अधिक | कोर्ट बच्चे की राय भी लेता है |
🔹 मां के पक्ष में मुख्य तर्क
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Natural Guardian: छोटे बच्चों के लिए मां को स्वाभाविक अभिभावक माना गया है।
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भावनात्मक संबंध: बच्चे की भावनात्मक ज़रूरतें मां बेहतर समझ पाती है।
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सामाजिक स्थिरता: बच्चे के पालन-पोषण में मां की भूमिका अधिक संवेदनशील मानी जाती है।
🔹 पिता के पक्ष में मुख्य तर्क
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आर्थिक स्थिरता: पिता प्रायः आर्थिक रूप से मजबूत होते हैं, जिससे बच्चे की शिक्षा व आवश्यकताएँ पूरी हो सकती हैं।
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परिपक्व निर्णय क्षमता: कई बार पिता बेहतर अनुशासन और मार्गदर्शन दे सकता है।
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मां की अनुपलब्धता: यदि मां बच्चे की सही देखभाल न कर सके, तो पिता को कस्टडी दी जा सकती है।
🔹 सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के महत्वपूर्ण फैसले
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Roxann Sharma vs Arun Sharma (2015):
कोर्ट ने कहा कि 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चे की प्राथमिक कस्टडी मां को दी जाएगी। -
Rosy Jacob vs Jacob A Chakramakkal (1973):
बच्चे की भलाई (Welfare) को सर्वोपरि माना गया, न कि माता-पिता के अधिकार को। -
Gaurav Nagpal vs Sumedha Nagpal (2009):
कहा गया कि “Child’s welfare is the paramount consideration.”
🔹 क्या बच्चे की राय ली जाती है?
हाँ, यदि बच्चा 12 वर्ष या उससे अधिक का है, तो कोर्ट उसकी इच्छा जानती है।
हालांकि, अंतिम निर्णय कोर्ट का होता है, लेकिन बच्चे की पसंद को काफी महत्व दिया जाता है।
🔹 क्या कस्टडी स्थायी होती है?
नहीं।
यदि भविष्य में परिस्थितियाँ बदल जाएँ — जैसे:
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जिस माता-पिता के पास बच्चा है, वह उसकी देखभाल न कर पाए,
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या बच्चे के हित में बदलाव आवश्यक हो,
तो दूसरा पक्ष कस्टडी बदलवाने के लिए कोर्ट में आवेदन कर सकता है।
🔹 संयुक्त कस्टडी (Joint Custody)
अब कई फैमिली कोर्ट्स संयुक्त कस्टडी का विकल्प भी देती हैं, जिसमें दोनों माता-पिता बच्चे के जीवन में सक्रिय रहते हैं।
उदाहरण:
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बच्चा सप्ताह के कुछ दिन मां के साथ और कुछ दिन पिता के साथ रहता है।
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स्कूल या मेडिकल निर्णय दोनों मिलकर लेते हैं।
यह मॉडल बच्चे के भावनात्मक संतुलन के लिए बेहतर साबित होता है।
🔹 निष्कर्ष
भारत का कानून किसी एक पक्ष (मां या पिता) के पक्ष में नहीं झुकता।
कोर्ट का एकमात्र उद्देश्य होता है —
👉 बच्चे का भविष्य, सुरक्षा, शिक्षा और मानसिक संतुलन सबसे अधिक सुरक्षित रहे।
इसलिए, डिवोर्स के बाद कस्टडी उस व्यक्ति को मिलती है जो बच्चे की भलाई के लिए अधिक उपयुक्त हो — चाहे वह मां हो या पिता।
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