मौत की सज़ा पर बहस: क्या फांसी अब भी ज़रूरी है?
भारत समेत दुनिया के कई देशों में मौत की सज़ा (Capital Punishment) एक विवादित मुद्दा रहा है। कुछ लोग इसे न्याय की पराकाष्ठा मानते हैं, जबकि अन्य इसे एक अमानवीय और अप्रासंगिक दंड कहते हैं। सवाल यह है — क्या आज के दौर में फांसी की सज़ा वाकई जरूरी है?
मौत की सज़ा: इतिहास और वर्तमान स्थिति
भारत में फांसी की सज़ा उन मामलों में दी जाती है जो “दुर्लभतम से दुर्लभ” (rarest of the rare) की श्रेणी में आते हैं। 2024 तक भारत में कई चर्चित मामलों में फांसी दी गई — जैसे निर्भया कांड के दोषियों को। लेकिन वहीं दूसरी ओर, कई मामलों में दोषी सालों तक फांसी की प्रतीक्षा में जेल में रहते हैं, और बाद में अदालतें फैसला पलट भी देती हैं।
फांसी के पक्ष में तर्क
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न्याय और प्रतिशोध: पीड़ित परिवारों को संतोष देने के लिए।
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दुराचारियों को सबक: समाज में कड़ा संदेश देने के लिए।
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राष्ट्रीय सुरक्षा: आतंकवाद जैसे मामलों में, जहां दोषी समाज के लिए निरंतर खतरा हैं।
फांसी के विरोध में तर्क
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गलत सज़ा का खतरा: कई निर्दोष लोग गलत गवाहियों या दबाव में फंसा दिए जाते हैं।
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अमानवीय दंड: क्या किसी व्यक्ति की जान लेना वास्तव में न्याय है?
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निवारक प्रभाव का अभाव: रिसर्च बताती है कि फांसी अपराध रोकने में ज्यादा असरदार नहीं होती।
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वैकल्पिक सजा उपलब्ध है: आजीवन कारावास एक वैकल्पिक और कम क्रूर उपाय है।
अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण
बहुत से विकसित देशों ने मौत की सज़ा को या तो पूरी तरह समाप्त कर दिया है या वर्षों से इसका इस्तेमाल नहीं किया है। उदाहरण के लिए:
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यूरोपियन यूनियन के सभी सदस्य देशों में फांसी पर प्रतिबंध है।
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कनाडा और ऑस्ट्रेलिया ने इसे दशकों पहले समाप्त कर दिया।
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अमेरिका में भी कुछ राज्य अब इसे नहीं अपनाते।
भारत में बदलाव की आवश्यकता?
हाल के वर्षों में भारत में मौत की सज़ा पर पुनर्विचार की मांग तेज हुई है। न्यायालय भी कई बार कह चुका है कि फांसी "आख़िरी विकल्प" होनी चाहिए। साथ ही, न्याय प्रक्रिया की धीमी गति, अपीलों की लंबी कतार और राजनीतिक दबाव जैसे मुद्दे इस बहस को और भी गंभीर बनाते हैं।
मानवता बनाम न्याय: एक संतुलन की जरूरत
क्या कोई अपराध इतना जघन्य हो सकता है कि उसकी सज़ा केवल मृत्यु हो? और क्या किसी के अपराध के बदले राज्य को किसी की जान लेने का नैतिक अधिकार है? ये ऐसे सवाल हैं जो किसी भी संवेदनशील समाज को सोचने पर मजबूर करते हैं।
निष्कर्ष
मौत की सज़ा पर बहस केवल एक कानूनी विमर्श नहीं है — यह एक नैतिक, सामाजिक और मानवीय सवाल है। भारत जैसे लोकतांत्रिक और संवैधानिक देश को यह तय करना होगा कि क्या न्याय का मतलब प्रतिशोध है या सुधार। शायद समय आ गया है कि हम फांसी की सज़ा को लेकर दोबारा सोचें — ठंडे दिमाग से, खुले दिल से।
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